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Friday 19 January 2024

'बच्चन' घर गए 'मुक्त'..

भिन्न देह एक प्राण,
प्रेमी, अद्भुत, महान।

शारदेय, ज्ञान निधि,
दैवी सामर्थ्यवान।

कविकुल की आन-बान,
दिनमणि से तेजवान।

स्नेह को अपने फिर भी,
जीवन भर रखा गुप्त।

'बच्चन' घर गए 'मुक्त'...

गंगा-सी थी तरंग,
चलते थे संग-संग।

संगम की धार से थे,
एक रूप और अभंग।

नूतन करते प्रसंग,
रमते थे एक रंग।

मित्रता अनोखी थी,
शीतल सुगंध युक्त।

'बच्चन' घर गए 'मुक्त'...

आज खिले होंगे फिर,
दोनों के ही अंतर।

देवधाम में होगी,
अद्भुत आभा प्रखर।

मित्रों का मिलन देख,
देव नत हुए होंगे।

पुष्प लुटाते होंगे,
अंजुलियाँ भर-भर कर।

बरसों के बाद आज, 
बंधु के घर बंधु गए।

देख दृश्य ये पावन,
मन के छिड़ तार गए।

नयनों का नीर जगा,
अब तक था जो प्रसुप्त।

'बच्चन' घर गए 'मुक्त'।
- अंशुल।

Tuesday 9 January 2024

धनुष भंग

उठो हे राम!
अब उठकर धनुष,
संधान कर लो !!
ज़रा देखो खड़ी हैं,
जानकी कर में लिए,
जयमाल सुंदर, 
दुलारी जनक की देखो तनिक, व्याकुल बड़ी है!! 
प्रतीक्षारत, विकल है, और ये कब से खड़ी है!!
नयन का धीर खोता जा रहा है!
हृदय गम्भीर होता जा रहा है!
तुम्हें टेढ़ी नज़र से देखती है,
झुकाए सर यूँ फिर कुछ सोचती है।
मनाती गणपति को हाथ जोड़े!
खड़ी है चुप, है सर पर शील ओढ़े।
लिया था जन्म तुमने तो,
सभी सन्ताप हरने को ,
तो क्यूँ फिर यूँ जनक का,
ताप अब हरते नहीं हो।
उठो रघुवंशियों में,
सूर्य के प्रतिरूप राघव,
उठो अब जानकीवल्लभ कहाओ,
जनक का शोक, सीता की विकलता,
धनुष के साथ जाकर तोड़ आओ।

-अंशुल।

Sunday 14 August 2022

ध्वज वंदन (15 aug 2022)

हे! शक्ति शांति के चिर प्रतीक,
समृद्धि गति के संवाहक,
हे! न्याय दंड पर जड़े अडिग,
स्वतंत्र हिंद के संभाषाक।

अगणित बलिदानों से निर्मित,
अगणित मुस्कानों के कारक,
हे! कर्म और पुरुषार्थ प्रखर,
भारत की अस्मिता के धारक।

तुम नहीं हो केवल ध्वज अपितु,
तुम जन गण मन का मान भी हो,
तुम ही से सब, तुम ही सब कुछ,
तुम पूरा हिंदुस्तान भी हो।

तुम से गंगा, तुम से जमुना,
तुम से ही हिमालय है प्रचंड,
तुम से केसरिया काश्मीर,
तुम से दक्षिण के तट अखंड।

हर भारतवासी के कर में,
तुम हो काशी के हर हर में,
मथुरा की राधे राधे में,
चट्टानी अटल इरादे में।

तुम अमृतसर के अमृत में,
पंजाब के पांचों नीर में हो,
हरियाणा की हरियाली में,
गुजरात के अविचल धीर में हो।

तुम अवध के जय श्रीराम में हो,
संकट मोचन हनुमान में हो,
सरयू के जल की कल जल में,
तुम काशी के विश्राम में हो।

तुम गौरवमय, तुम अति विराट,
तुम आदि मध्य अवसान भी हो,
तुम ही से सब, तुम ही सब कुछ,
तुम पूरा हिंदुस्तान भी हो।

राणा प्रताप का गौरव तुम,
तुम पृथ्वीराज का अटल शौर्य,
तुम छत्रसाल के बल स्वरूप,
तुम गुप्त वंश के शीर्ष मौर्य।

गीता का दैवी ज्ञान भी तुम,
हर मर्यादा का मान भी तुम,
रामायण का विधान भी तुम,
गुरुओं का ग्रंथ महान भी तुम।

तुम ही गांधी की लाठी में,
तुम चंद्र बोस की काठी में,
तुम शेखर की कुर्बानी में,
तुम भगत की वीर जवानी में।

तुम ही झांसी की रानी में,
तुम शिवा वीर तूफानी में,
तुम ही अशफ़ाक ओ बिस्मिल में,
तुम खुदीराम बलिदानी में।

तुम क्या हो कैसे कहा जाए?
तुम तो हम सब के प्राण भी हो,
तुम ही से सब, तुम ही सब कुछ,
तुम पूरा हिंदुस्तान भी हो।

हम सबका ये ही गौरव है,
हम छांह तुम्हारी पा जाएं,
ये जीवन है इस आस में बस,
कुछ काम तुम्हारे आ जाए।

तुम ही हो हमारा परम लक्ष्य,
तुम ही उसका संधान भी हो,
तुम ही से सब, तुम ही सब कुछ,
तुम पूरा हिंदुस्तान ही हो।

- अंशुल तिवारी

Sunday 17 July 2022

kahani...quote!!!

एक कहानी मैं ख़ुद को रोज़ सुनाता हूं!!

वो जिसमें, सब ठीक हो जाता है...

वो जिसमें, सच्चाई जीत जाती है...

वो जिसमें, मंज़िल मिल जाती है...

....

और वो बहुत अच्छी "कहानी है"!!!

- अंशुल।

Monday 21 March 2022

तलाश!

मैं ढूंढता हू‍ं,
ख़ुद के अंदर...वो लड़का,
जो लड़ सकता था,
अपने सपनों के लिए,
दुनिया के हर एक शख़्स से!!!
वो जो आवाज़ उठा सकता था,
होते हुए अन्याय को देखकर!!
वो जो सबके बीच,
चमकता हीरे-सा!
या बुद्धिमानों की सभा में 
उद्दीप्त होता, सूर्य की तरह!!
और, वो जो मुहब्बत में, 
जान की बाज़ी लगा देता!
.......
मैं अब तक उस लड़के को,
अपने अंदर ढूंढ रहा हूं!!
जो शायद दबा हुआ है,
ज़रूरतों के दलदल में!...
दुनियावी रिवाजों के,
कोयले के नीचे...
नीति-नियम, तथाकथित,
सभ्यता के पत्थरों से!
मैं ढूंढ रहा हूं...
इसी उम्मीद में,
कि, किसी दिन वो मिलेगा,
मेरे भीतर सर उठाएगा!
उंगलियां चटकाएगा,
बाहर निकलेगा,
कुछ कर दिखाएगा!...
बस तब तक मुझे ख़ुद को,
बचाना है, 
प्रौढ़ हो जाने से!!

-अंशुल।

Wednesday 10 November 2021

बचपन

मेरा बचपन मुझे अक्सर, यूँ रह-रहकर सताता है!
पुराने सब वही किस्से, ये अक्सर ही सुनाता है!
कभी लुका-छिपी का खेल, कभी वो दौड़ बेफ़िक्री,
कभी वो आम की चोरी,  मिठाई मीठी वो गुड़ की!
कभी वो नाव काग़ज़ की, कभी तालाब में डुबकी,
कभी वो स्कूल से छुट्टी, किसी भी बात पर कट्टी!
वो क्या यारों की थी टोली, वो शैतानों की थी टोली,
उधम जी भर मचाना वो, थी बदमाशियाँ भोली।
मेरे बचपन में हर मौसम बहुत ही ख़ूबसूरत था,
मुझे बचपन मेरा अक्सर बहुत ही याद आता है,
मेरा बचपन मुझे अक्सर, यूँ रह-रहकर सताता है!

-अंशुल तिवारी

Sunday 7 November 2021

इन पहाड़ों में (reels)

Reel
पता है...कभी-कभी दिल करता है कि इस बड़े शहर को छोड़कर कुछ दिन पहाड़ों में ही गुज़ारूँ,
क्यूंकि शहर की हवा में oxygen तो बहुत ज़्यादा है, पर ज़िंदगी बहुत कम....
और इन पहाड़ों में, oxygen भले ही कुछ कम हो, लेकिन ज़िंदगी बहुत ज़्यादा है!!!